संदेश

प्रत्येकाच्या कपाळी म्हणे
भाग्य लिहिलेलं असतं
आठ्या पाडून म्हणूनच ते
चुरगळायचं नसतं

Friday, October 29, 2010

NEW LAW BY GOVERNMENT OF INDIA.

New Law by Government of India


If you find any important documents like Driving License, Ration Card, Passport, Bank Passbook, Voter's Card etc. that is missed by someone; simply put them into nearby post boxes.


“They will be delivered to the owner and postal fee or fine will be collected from them”.


Pass on this useful information to all your contacts!

Friday, October 22, 2010

कोजागिरी पौर्णिमा 
 आश्विन पौर्णिमेला कोजागिरी पौर्णिमा म्हणतात. या दिवशी रात्री इंद्राची पूजा करतात. पूजेनंतर रात्री चंद्राला आटीव दूधाचा नैवेद्य दाखवायचा असतो. मध्यरात्री लक्ष्मी चंद्रमंडळातून पृथ्वी वर उतरते व 'को जागर्ति?' 'कोण जागं आहे?' असा प्रश्न विचारते जो जागा असेल त्याला जी धनधान्य देते. यावरून कोजागिरी पौर्णिमा असे नांव पडले.

आश्विन महिन्यात पावसाळा संपतो. त्यामुळे आकाश निरभ्र असते व स्वच्छ चांदण असते अशा चांदण्यारात्री इष्टमित्रांसह मौजमजा करण्याच्या दृष्टीने हा उत्सव साजरा करतात. राजस्थान मध्ये स्त्रिया या दिवशी शुभ्र वस्त्र धारण करून चांदीचे अलंकार घालण्याची प्रथा आहे.


ज्ञानोबा माऊली सृष्टीतील प्रत्येक उत्तमात उत्तम गोष्टीचा दृष्टान्तासाठी मोठ्या गुणग्राहक रसिकतेने उपयोग करुन घेतात. अमृत, परीस, सोने, कल्पवृक्ष, कामधेनू, गंगा, समुद्र, सूर्य, चंद्र या त्यांपैकी काही.

पौर्णिमा ही ज्ञानोबांना आवडणारी अशीच एक गोष्ट. चौदाव्या अध्यायात अर्जुनाला भगवान श्रीकृष्ण देहात सत्त्वगुणाची वृद्धी झाल्यावर काय होते ते सांगतात. ती सत्वगुणवृद्धी केवळ बुद्धी आणि इंद्रियांमध्येच दिसून येते असे नाही तर ज्ञानाच्या प्रांतातही तिचा संचार झालेला दिसतो, असे सांगतात. हे सांगताना,

अगां पुनवेचां दिवशीं।
चंद्रप्रभा धांवे आकाशीं।
ज्ञानी वृति तैसी।
फाके सैंघ।।

पौर्णिमेच्या रात्री ज्याप्रमाणे चंद्रप्रकाश आकाशात सर्वत्र पसरतो तशीच ज्ञानातदेखील सत्त्ववृत्ती सर्वत्र पसरते, असा दृष्टान्त देतात. सतराव्या अध्यायात भगवंतांचे बोलणे, उपदेश अर्जुन अगदी तल्लीन होऊन ऐकत होता. त्या वेळी त्याची ती कृष्णाशी झालेली तद्रूपता कशी होती? ज्ञानदेव वर्णन करतात,

हरपला चंद्रु जैसा।
चांदिणेनि।।

पुढे अठराव्या अध्यायात सर्व प्राणिमात्रांशी समत्वदृष्टीने वागणार्‍या भक्ताचे अज्ञान नाश पावल्यावर तो माझ्या स्वरूपी येतो आणि मग माझ्याशी एकरुप झाल्यावर त्याचे उरलेसुरले अज्ञानही नाहीसे होते ते कशाप्रमाणे ? हे अर्जुनाला नीट कळावे म्हणून भगवान पुन्हा पौर्णिमेच्या पूर्णचंद्राचा दृष्टान्त देतात.

हें ना आपुलें पूर्णत्व भेटे।
जेथ चंद्रासी वाढी खुंटे।
तेथ शुक्लपक्षु आटे।
नि:शेष जैसा।।

पौर्णिमेच्या चंद्राला आपले पूर्णत्व मिळते. साहजिकच त्यामुळे चंद्राचे वाढणेही थांबते. परिणामी शुक्लपक्ष संपूर्णपणे नाहीसा होतो. हा मनोज्ञ आशय नेमक्या शब्दांत येथे व्यक्त केला आहे. याच अठराव्या अध्यायात आर्त-जिज्ञासू-अर्थार्थी या तिन्ही भक्तींतील अज्ञान परमेश्वराला दृश्य करते, भेद दर्शविते. पराभक्ती ही चौथी भक्ती मात्र या तिन्ही भक्तींपेक्षा वेगळी आहे. ही पराभक्ती म्हणजेच ज्ञानभक्ती. ही ज्ञानभक्ती अभेदभावाने अज्ञान नाहीसे करते. साहजिकच या ज्ञानभक्तीमुळे देवाला निश्चित स्वरूपात जाणता येते. येथे ज्ञानदेव पुन्हा एकदा पौर्णिमेच्या चंद्राचा दृष्टांत देतात. ते सांगतात,





हां गा पूर्णिमेअधीं कायी।
चंद्रु सावयवुचि नाहीं।
परी तिये दिवशीं भेटे पाहीं।
पूर्णता तया।।





पौर्णिमेच्या आधी चंद्र अस्तित्वात नसतो काय? त्याला काय अवयव नसतात? तेव्हाही त्याला कला असतात, तो कलेकलेने वाढत असतो. हे जर खरे तर मग पौर्णिमेला नक्की काय होते? तर त्याला पूर्णता येते. तो पूर्ण होतो.


ज्ञानेश्वर महाराजांनी ज्ञानेश्वरीत पौर्णिमेचे, चंद्राचे, चांदण्याचे जे कौतुक केले आहे, ते सारे आनंदाने आठवत कोजागिरी मनोमनी साजरी करू या.

- ज्योतिर्भास्कर जयंत साळगावकर

Thursday, October 21, 2010

                                                    ।। श्रीः।।

सरसंघचालक श्री मोहनजी भागवत के विजयादशमी भाषण का सारांश


अश्विन शु. दशमी युगाब्द 5112 (17 अक्टूबर, 2010)

श्री रामजन्मभूमि न्यायिक निर्णयः एक शुभ संकेत

प्राचीन समय से अपने देश में धर्म की विजय यात्रा के प्रारम्भ दिवस के रूप में सोत्साह व सोल्लास मनाये जानेवाला यह विजयादशमी का पर्व इस वर्ष संपूर्ण राष्ट्र के जनमन में, 30 सितंबर 2010 को श्री रामजन्मभूमि के विषय को लेकर मिले न्यायिक निर्णय से व्याप्त आनन्द की पृष्ठभूमि लेकर आया है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ का यह निर्णय अंततोगत्वा श्रीरामजन्मभूमि पर एक भव्य मंदिर के निर्माण का ही मार्ग प्रशस्त करेगा। मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम, विश्वभर के हिन्दुओं के लिए देवतास्वरुप होने के साथ-साथ इस देश की पहचान, अस्मिता, एकात्मता, स्वातंत्र्याकांक्षा तथा विजिगीषा के मूल में स्थित जो हम सभी की राष्ट्रीय संस्कृति है उसकी मानमर्यादा के प्रतीक भी हैं। इसीलिए हमारे संविधान के मूलप्रति में स्वतंत्र भारत के आदर्श, आकांक्षाएँ तथा परम्परा को स्पष्ट करनेवाले जो चित्र दिये हैं,उसमें मोहनजोदड़ो के अवशेष तथा आश्रमीय जीवन के चित्रों के पश्चात् पहला व्यक्तिचित्र श्रीराम का है। श्री गुरू नानक देव जी ने सन1526 में समग्र भारत का भ्रमण करते हुए श्री रामजन्मभुमि के दर्शन किये थे। यह बात सिख पंथ के इतिहास में स्पष्ट उल्लिखित है। ऐतिहासिक, पुरातात्विक तथा प्रत्यक्ष उत्खनन के साक्ष्यों के आधार पर श्रीरामजन्मभूमि पर इ.स. 1528 के पहले कोई हिन्दू पवित्र भवन था, यह बात मान ली गई।

नियति द्वारा प्रदत्त शुभ अवसर

श्री रामजन्मभूमि संबंधित न्यायिक प्रक्रिया 60 वर्ष तक खींची जाने के कारण संपूर्ण समाज की समरसता में विभेद का विष व संघर्ष की कटुता व पीड़ा को घोलनेवाला, एक अकारण खड़ा किया गया विवाद समाप्त कर, अपनी राष्ट्रीय मानमर्यादा के प्रतीक मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम की अयोध्या स्थित जन्मभूमि पर उनका भव्य मंदिर बनाने के निमित्त, हम सभी को बीती बाते भूलकर एकत्र आना चाहिए। यह निर्णय अपने देश के मुसलमानों सहित सभी वर्गों को आत्मीयतापूर्वक मिलजुलकर एक नया शुभारम्भ करने का नियति द्वारा प्रदत्त एक अवसर है यह संघ की मान्यता है। अपनी संकीर्ण भेदवृत्ति, पूर्वाग्रहों से प्रेरित हट्टाग्रह तथा संशयवृत्ति छोड़कर, अपने मातृभूमि की उत्कट अव्यभिचारी भक्ति, अपनी समान पूर्वज परंपरा का सम्मान तथा सभी विविधताओं को मान्यता, सुरक्षा व अवसर प्रदान करनेवाली, विश्व की एकमेवाद्वितीय, विशिष्ट, सर्वसमावेशक व सहिष्णु अपनी संस्कृति को अपनाकर, स्व. लोहिया जी के शब्दों में भारत की उत्तर दक्षिण एकात्मता के सृजनकर्ता श्रीराम का मंदिर जन्मभूमि पर बनाने के लिए हमे एकत्रित होना चाहिए। यही संपूर्ण समाज की इच्छा है। 30 सितंबर को निर्णय आने के पश्चात समाज ने जिस एकता व संयम का परिचय दिया वह इसी इच्छा को स्पष्ट करता है।

षड्यंत्रकारियों से सावधान

परन्तु राष्ट्रीय एकता के प्रयासों के लिए प्राप्त इस अवसर को भी तुष्टिकरण और वोट बैंक की राजनीति के स्वार्थसाधन का हथियार बनाने की दुर्भाग्यपूर्ण चेष्टा, निर्णय के दूसरे दिन से ही प्रारम्भ हुयी हम देखते है। पंथ, प्रान्त, भाषा की हमारी विविधताओं को आपस में लड़ाकर मत बटोरने वाले यही कुछ लोग, एक तरफ मुख से ‘सेक्युलॅरिज्म’ का जयकारा लगाकर, बड़ी-बड़ी गोलमटोल बातों को करते हुए सामाजिक सद्भाव को बिगाड़ने के सूक्ष्म षड्यंत्र को रचते हुए सद्भाव निर्माण करनेवाले प्रसंगों व प्रयत्नों में बाधा डालते रहते हैं। माध्यमों व तथाकथित बुद्धिजीवियों में भी अपने भ्रामक विचार का अहंकार पालनेवाले, हिन्दू विचार व हिन्दू के लिए चलनेवाले प्रयासों के पूर्वाग्रहग्रसित द्वेष्टा, व अपने स्वार्थों व व्यापारिक हितों के लिए सत्य, असत्य की परवाह न करते हुए ”न भयं न लज्जा“ ऐसा व्यवहार करनेवाले कुछ लोग हैं।30 सितम्बर को दोपहर 4 बजे तक की इनकी भाषा तथा निर्णय आने के पश्चात् की भाषा व व्यवहार का अंतर देखेंगे तो यह बात आप सभी के ध्यान में आ जायेगी। समाज के विभिन्न वर्गों में एक दूसरे के प्रति अथवा एक दूसरे के संगठनों के प्रति भय व अविश्वास का हौवा खड़ा करने का उनका काम सदैव ‘सेक्युलॅरिज्म’ का चोला ओढ़कर, कुटिल तर्कदुष्टता से चलता रहता है। इन सभी से सदा ही सावधान रहने की आवश्यकता है। अपने स्वार्थ को साधने के लिए विश्वबंधुत्व, समता, शोषणमुक्ति आदि बड़ी-बड़ी बातों की आड़ में समाज में इन बातों को अवतीर्ण होने से इन्ही लोगों ने रोका है।


इसी स्वार्थकामना व विद्वेष के चलते कुछ आतंक की घटनाओं में कुछ थोड़े से हिन्दू व्यक्तियों की तथाकथित संलिप्तता को लेकर ‘हिन्दू आतंकवाद’ ‘भगवा आतंकवाद’ जैसे शब्दप्रयोग प्रचलित करने का देशघाती षड्यंत्र चलता हुआ स्पष्ट दिखाई देता है। उसमें संघ को भी गलत नियत से घसीटने का दुष्ट प्रयास हो रहा है। असत्य के मायाजाल में जनता को भ्रमित करने की तथा हिन्दू संत, सज्जन, मंदिर व संगठनों को बदनाम करने की यह कुचेष्टा किनके इशारे पर चल रही है व किनको लाभान्वित कर रही है इसको जानने का हमने प्रयत्न नहीं किया है। परंतु यह किसी को लाभान्वित करने के स्थान पर अपने राष्ट्र को अपकीर्ति व आपत्ति में डालेगी यह निश्चित है।


अपने देश के संविधान सम्मत राष्ट्रध्वज के शीर्षस्थान पर विराजमान त्याग, कर्मशीलता व ज्ञान के प्रतीक भगवे रंग को; स्वयं आतंकी प्रवृत्तियों से मुक्त रहकर, आतंक से संघर्षरत हिन्दू समाज व संतों, साध्वियों को; भारत देश को; प्रत्येक प्राकृतिक आपदा में तथा आतंक व युद्ध जैसे मानवनिर्मित संकटों में शासन-प्रशासन का प्राणपण से सहयोग करनेवाले, 1 लाख 57 हजार के ऊपर छोटे-बड़े सेवा केन्द्र देश की अभावग्रस्त जनता के लिए बिना किसी भेदभाव अथवा स्वार्थ के उद्देश्य से चलानेवाले स्वयंसेवकों को, संघ को व अन्य संगठनों को कलंकित करने की यह चेष्टा असफल ही होगी। न्यायालयों के अभियोगों के निर्णयों के पूर्व ही माध्यम-अभियोगों के सूचनाभ्रम-तंत्र [disinformation campaign via media trial] का उपयोग संघ के विरुद्ध करने के पूर्व अपने कलंकित गिरेबान में झाँकने का प्रयास ये शक्तियाँ करके देखें। ये लोग अपने राजनैतिक स्वार्थों के लिए ‘भगवा आतंक’ शब्द का प्रयोग करके भारत की श्रेष्ठ परंपरा और सभी संत महात्माओं का अपमान करने से भी बाज नहीं आ रहे है। यह समय देश को अपने क्षुद्र व घृणित चुनावी षड्यंत्रों में उलझानें का नहीं है।

कश्मीरः अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की बिसात

कश्मीर में संकट गंभीर व जटिलतर बन गया है। हमारी उपेक्षा के कारण बाल्टिस्तान व गिलगिट पाकिस्तान के अंग बन गये और चीन ने अपनी सेना की उपस्थिति वहाँ दर्ज कराते हुए भारत को घेरने का कार्य पूर्ण कर लिया है। अफगानिस्तान से बाइज्जत व सुरक्षित स्थिति में भागकर पाकिस्तान को अपने साथ रखते हुए कश्मीर घाटी में अपने पदक्षेप के अनुकूल स्थिति बनाने के लिए अमरीका बढ़ रहा है। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की यह बिसात घाटी में बिछ जाने के पहले ही हमारी पहल होनी चाहिए। अफगानिस्तान में अपने हितों के अनुकूल वातावरण को बनाते हुए, घाटी की परिस्थितियाँ हमे शेष भारत के साथ सात्मीकरण की ओर मोड़नी ही पड़ेगी। किसी भी केन्द्र सरकार का अपने देश के अविभाज्य अंगों के प्रति यह अनिवार्य कर्तव्य होता है। भारत की सार्वभौम प्रभुसत्तासंपन्न सरकार को अलगाववादी तत्वों के द्वारा कराये गये प्रायोजित पथराव के आगे झुकना नहीं चाहिए। सेना के बंकर्स हटाने से व उसके अधिकार कम करने से वहाँ भारत की एकात्मता व अखण्डता की रक्षा नहीं होगी। संसद के वर्ष 1994 में सर्वसम्मति से किये गये प्रस्ताव में व्यक्त संकल्प ही अपनी नीति की दिशा होनी चाहिए। हमें यह सदैव स्मरण रखना है कि महाराजा हरिसिंह के द्वारा हस्ताक्षरित विलयपत्र के अनुसार कश्मीर का भारत में विलीनीकरण अंतिम व अपरिवर्तनीय है।

जम्मू-कश्मीर की सब जनता अलगाववादी नहीं

जम्मू व कश्मीर राज्य में केवल कश्मीर घाटी नहीं है। और उसमें भी स्वायतत्ता की माँग करने वाले व उसकी आड़ में अलगाव को बढ़ावा देकर आजादी का स्वप्न देखने वाले लोग तो बहुत थोड़े ही है। अतः केवल इन अलगाववादी समूहों व उनके नेतृत्व को ही विभिन्न वार्ताओं के माध्यम से मुख्य रूप से सुनना व प्रश्रय देना समस्या को सुलझाने की बजाय उसे और अधिक उलझाने का ही कारण बनता दिख रहा है। अतः हमें घाटी के साथ-साथ जम्मू एवं लद्दाख की कठिनाइयों व उनके साथ सालों से चले आ रहे भेदभाव के बारे में भी गम्भीरता से विचार करना होगा। घाटी में अलगाववादी तत्वों के बहकावे में आ गये नौजवानों एवं सामान्य जनता से बात अवश्य ही होनी चाहिए। पर इसके साथ ही समूचे जम्मू-कश्मीर के राष्ट्रवादी सोच के मुसलमानों, गुज्जर-बक्करवालों, पहाड़ियों, शियाओं, सिक्खों, बौद्धों, कश्मीरी पण्डितों एवं अन्य हिन्दुओं की भावनाओं, आवश्यकताओं व आकांक्षाओं को भी ध्यान में रखना नितांत आवश्यक है। साथ ही पाक अधिकृत कश्मीर से आये शरणार्थियों की लम्बे समय से चली आ रही न्यायोचित माँगों पर तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता है। अपने गाँव व घरों से उजड़े कश्मीरी पण्डितों को ससम्मान, अपनी सुरक्षा व रोजगार के प्रति पूर्ण आश्वस्त हो कर शीघ्रातिशीघ्र घाटी में उनकी इच्छानुसार पुनः स्थापित कराया जाना चाहिए। ये सब भारत के साथ सम्पूर्ण सात्मीकरण चाहते हैं। अतः इन सब की सुरक्षा, विकास व आकांक्षाओं का विचार जम्मू-कश्मीर समस्या के सम्बन्ध में होना ही चाहिए। इन सब पक्षों का विचार करने पर ही जम्मू-कश्मीर के सम्बन्ध में चलायी जाने वाली वार्तायें सर्वसमावेशी और फलदायी हो सकेगी।


स्वतंत्रता के तुरन्त बाद से ही जम्मू व काश्मीर की प्रजा भेदभाव रहित सुशासन व शांति की भूखी है। वह उनको शीघ्रातिशीघ्र मिले ऐसे सजग शासन व प्रशासन की व्यवस्था वहां हो यह आवश्यक है।

चीनः एक गम्भीर चुनौती

तिब्बत में अपनी बलात् उपस्थिति को वैध सिद्ध करने के चक्कर में तिब्बत समस्या की तुलना कश्मीर से करनेवाला चीन अब गिलगिट व बाल्टिस्थान में प्रत्यक्ष उपस्थित है। जम्मू व कश्मीर राज्य तथा उत्तरपूर्वांचल के नागरिकों को चीन में प्रवेश करने के लिए वीसा की आवश्यकता नहीं ऐसा जताकर उसने भारत के अंतर्गत मामलों में हस्तक्षेप करने का प्रयास किया है। चीन के उद्देश्यों के मामले में अब किसी के मन में कोई भ्रम अथवा अस्पष्टता रहने का कोई कारण नहीं रहना चाहिए। उन उद्देश्यों को लेकर भारत को घेरने, दबाने व दुर्बल करने के चीन के सामरिक, राजनयिक व व्यापारिक प्रयास भी सबकी आँखों के सामने स्पष्ट है। उस तुलना में हमारी अपनी सामरिक,राजनयिक व व्यापारिक व्यूहरचना की सशक्त व परिणामकारक पहल, शासन की इन मामलों में सजगता, समाज मन की तैयारी इन पर त्वरित ध्यान देने की कृति होने की आवश्यकता है। इसमें और विलंब देश के लिए भविष्य में बहुत गंभीर संकट को निमंत्रण देने वाला होगा।

नक्सली आतंक

चीन के समर्थन से नेपाल में माओवादियों का उपद्रव खड़ा हुआ व बड़ा हुआ। नेपाल के उन माओवादियों का अपने देश के माओवादी आतंक के साथ भी संबंध है। उनका दृढ़तापूर्वक बंदोबस्त करने के बारे में अभी शासन अपनी ही अंदरुनी खींचतान में उलझकर रह गया है। प्रशासन को पारदर्शी एवं जवाबदेह बनाना, माओवादी प्रभावित अंचलों में विकासप्रक्रिया को गति देना इसके भी परिणामकारक प्रयास नहीं दिखते। कहीं-कहीं तो इस समस्या का भी अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए साधन के रूप में उपयोग किया जा रहा है। देश की सुरक्षा व प्रजातंत्र के लिए यह बात बहुत महंगी पडेगी।

उत्तरपूर्वांचलः देशभक्त जनता की उपेक्षा

उत्तरपूर्वांचल के संदर्भ में भी यह बात महत्वपूर्ण है। वहाँ पर भी अलगाववादी स्वरों को प्रश्रय मिलता है व देश के प्रति निष्ठा रखनेवालों की उपेक्षा होती है। इसी नीति के कारण जनसमर्थन खोकर मृतप्राय बनते चले N.S.C.N. जैसे अलगाववादी आतंकी संगठन को फिर से पुनरुज्जीवित होकर अपने आतंक व अलगाव सहित खड़े होने का अवसर मिला। उत्तरपूर्व सीमा के रक्षक बनकर चीन के आह्वान को झेलने की हिम्मत दिखानेवाले अरुणाचल की उपेक्षा ही चल रही है। मणिपुर की देशभक्त जनता तो उन अलगाववादियों द्वारा किये गये प्रदीर्घ नाकाबंदी में जीवनावश्यक वस्तुओं के घोर अभाव में तड़पती, राहत के लिए गुहार लगाते-लगाते थक गयी, निराशा के कारण प्रक्षुब्ध हो गयी। अपनी ही देश की देशभक्त जनता की उपेक्षा व अलगाववादियों की बिना कारण खुशामद चीन के विस्तारवादी योजनाओं की छाया में देश की सीमाओं की सुरक्षा की स्थिति को कितना बिगाड़ेगी इसकी कल्पना क्या हमारे नेतागण नही कर सकते? विदेशी ईसाई मिशनरियों के षड्यंत्रों एवं उपद्रवों के प्रति लगातार बरती जा रही उपेक्षा ने स्थिति को और अधिक गंभीर बना दिया है।

अनुनय की राजनीतिः एक गंभीर खतरा

एक तरफ तो शासन प्रशासन का यह अंधेरनगरी के राजा को ही शोभा देनेवाला इच्छाशक्तिविहीन ढुलमुल रवैय्या, दूसरी तरफ स्वतंत्रता के60 वर्षों के बाद भी सच्छिद्र रखी गयी सीमाओं से निरंतर चलनेवाली बांगलादेशी घुसपैठ का क्रम। न्यायालयों तथा गुप्तचर एजेंसियों के द्वारा बार-बार दी गयी detect, delete, and deport की राय के बावजूद, उसके प्रथम चरण detect तक की कार्यवाही करने की इच्छाशक्ति व दृढ़ता चुनावों में मतों की प्राप्ति के लिए अनुनय में किसी भी स्तर तक उतर सकने वाले हमारे राज्यों के व केन्द्रों के नेताओं ने खो दी है, ऐसा ही चित्र सर्वत्र दिखता है। उत्तरपूर्वांचल के राज्यों व बंगाल व बिहार के सीमावर्ती जिलों में जनसंख्या का चित्र बदल देनेवाली इस घुसपैठ ने वहाँ पर कट्टरपंथी सांप्रदायिक मनोवृत्ति को बढ़ाकर वहाँ की मूलनिवासी जनजातियाँ व हिन्दू जनता को प्रताड़ित करनेवाली गुंडागर्दी व अत्याचारी उपद्रवियों की उद्दंडता व दुःसाहस को और प्रोत्साहित किया है। हाल ही में बंगाल के देगंगा में हिन्दू समाज पर जो भयंकर आक्रमण हुआ, वह इन सीमावर्ती प्रदेश में देशभक्त हिन्दू जनता पर गत कुछ वर्षों से जो कहर बरसाया जा रहा है उसका एक उदाहरण है। न वहाँ के राज्य शासन को, न केन्द्र में सत्तारूढ़ नेताओं को हिन्दू जनता के इस त्रासदी की कोई परवाह है। सबकी नजर अपने मतस्वार्थों पर ही पक्की गड़ी है। अंतर्गत कानून, सुव्यवस्था तथा हिन्दुओं की सुरक्षा का सीमावर्ती जिलाओं में टूटना हमारी सीमासुरक्षा को भी ढीला करता है इसका अनुभव शासन-प्रशासन सहित सभी को कई बार देश में सर्वत्र आ चुका है फिर भी यह स्थिति है।


शंका तो यहॉं तक आती है की इस बात की चिंता भी शासन वास्तविक रूप में करता है कि नहीं? जिस ढंग से इस बार की जनगणना में बिना किसी प्रमाण के, केवल बतानेवाले का कथनमात्र प्रमाण मानकर साथ-साथ ही नागरिकता की भी निश्चिति का प्रावधान किया उससे तो अपने देश में अवैध घुसा कोई भी व्यक्ति नागरिक बन जाता। अब सभी नागरिकों को विशिष्ट पहचान क्रमांक [unique Identification number] मिलनेवाला है। परंतु पहचान क्रमांक प्राप्त करनेवाले वास्तव में इसी देश के नागरिक है यह प्रमाणित करने की क्या व्यवस्था है?योजनाओं के बनाते समय इन सजगताओं को बरतने में ढिलाई अथवा भूलचूक नहीं होनी चाहिए।


जन्मना जातिविरहित समाज की रचना का दावा करते है तो फिर एक देश के एक जन की गणना में जाति पूछकर फिर एक बार उसका स्मरण दिलानेवाली योजना क्यों बनी? एकरस समाजवृत्ति उत्पन्न करने के लिए अपनी जाति हिन्दू, हिन्दुस्थानी अथवा भारतीय लिखो,बोलो, मानो ऐसा आवाहन देश के गणमान्य विद्वान व सामाजिक कार्यकर्ता कर रहे हैं, तब देश में भावनात्मक एकता लाने के लिए कर्तव्यबद्ध शासन उनका विरोध करते हुये तथा एक-एक नागरिक से उनकी जाति गिनवायेगा क्या? नियोजन के लिये आंकड़ों का संकलन करनेवाली किसी अलग, स्वतंत्र, तात्कालिक व मर्यादित व्यवस्था का निर्माण करना सरकारी क्षमता के बाहर नही है।

करनी और कथनी में अंतर्विरोध

देश को कहाँ ले जाने की हमारी घोषणाएँ है और हम उसको कहां ले जा रहे हैं। अपने देश के जिस सामान्य व्यक्ति के आर्थिक उन्नयन की हम बात करते हैं, वह तो कृषक है, खुदरा व्यापारी, अथवा ठेले पर सब्जी बेचनेवाला, फूटपाथ पर छोटे-छोटे सामान बेचनेवाला है, ग्रामीण व शहरी असंगठित मजदूर, कारीगर, वनवासी है। लेकिन हम जिस अर्थविचार को तथा उसके आयातित पश्चिमी मॉडेल को लेकर चलते हैं वह तो बड़े व्यापारियों को केन्द्र बनाने वाला, गाँवों को उजाड़नेवाला, बेरोजगारी बढ़ानेवाला, पर्यावरण बिगाड़कर अधिक ऊर्जा खाकर अधिक खर्चीला बनानेवाला है। सामान्य व्यक्ति, पर्यावरण, ऊर्जा व धन की बचत, रोजगार निर्माण आदि बातें उसके केन्द्र में बिल्कुल नहीं है।


एक तरफ हम सबके शिक्षा की बात करते हैं, दूसरी तरफ शिक्षा व्यवस्था का व्यापारीकरण करते हुए उसको गरीबों के लिए अधिकाधिक दुर्लभ बनाते चले जाते हैं। मानवीय भावना, सामाजिक दायित्वबोध, कर्तव्यतत्परता, देशात्मबोध अपने समाजजीवन में प्रभावी हो ऐसा उपदेश शिक्षा संस्थाओं में जाकर हम देते हैं और इन मूल्यों को संस्कार देनेवाली सारी बातों को निकाल बाहर कर ”पैसा, अधिक पैसा और अधिक पैसा“ किसी भी मार्ग से कमाने में ही जीवन की सफलता मानकर, निपट स्वार्थ, भोग तथा जड़वाद सिखानेवाला पाठ्यक्रम व पुस्तकें लागू करते है। कथनी व करनी के इस अन्तर्विरोध के मूल में अपने देश की वास्तविक पहचान, राष्ट्रीयता, वैश्विक दायित्व तथा एकता के सूत्र का घोर अज्ञान, अस्पष्टता अथवा उसके प्रति गौरव का अभाव तथा स्वार्थ व विभेद की प्रवृत्ति है। सभी क्षेत्रों में राष्ट्र के नेतृत्व करनेवाले लोगों में उचित स्वभाव हों, उचित चरित्र हो, उचित प्रवृत्ति बनी रहे, कभी उसमें भटकाव न आये यह चिन्ता सजगता से करनेवाला जागृत समाज ही इस परिस्थिति का उपाय कर सकता है।

हिन्दुत्वः अनिवार्य आवश्यकता

गत 85 वर्षों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ऐसे ही समाज की निर्मिती के लिए सुयोग्य व्यक्तियों के निर्माण में लगा है। अपने इस सनातन राष्ट्र की विशिष्ट पहचान, देश की अखंडता व सुरक्षा का आधार, समाज की एकात्मता का सूत्र तथा पुरुषार्थी उद्यम का स्रोत, तथा विश्व के सुख शांतिपूर्ण जीवन की अनिवार्य आवश्यकता हिन्दुत्व ही है, यह अब सर्वमान्य है और अधिकाधिक स्वतःस्पष्ट होते जा रहा है। अढ़ाई दशक पहले श्री विजयादशमी उत्सव के इसी मंच से संघ के उस समय के पू. सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस के इस कथन को कि - ‘भारत में पंथनिरपेक्षरता, समाजवाद व प्रजातंत्र इसीलिए जीवित है क्योंकि यह हिन्दुराष्ट्र है’, आज श्री एम.जे अकबर व श्री. राशिद अलवी जैसे विचारक भी लिख बोल रहे हैं। सभी विविधताओं में एकता का दर्शन करने की सीख देनेवाला, उसको सुरक्षा तथा प्रतिष्ठा देनेवाला व एकता के सूत्र में गूंथकर साथ चलानेवाला हिन्दुत्व ही है। हिन्दुत्व के इस व्यापक, सर्वकल्याणकारी, व प्रतिक्रिया तथा विरोधरहित पवित्र आशय को मन-वचन-कर्म से धारण कर इस देश का पुत्ररूप हिन्दु समाज खड़ा हो। निर्भय एवं संगठित होकर अपनी पवित्र मातृभूमि भारतमाता,उज्ज्वल पूर्वज-परंपरा तथा सर्वकल्याणकारी हिन्दू संस्कृति के गौरव की घोषणा करें यह आज की महती आवश्यकता ही नही, अनिवार्यता है। स्वार्थ और भेद के कलुष को हटाकर परमवैभवसंपन्न, पुरूषार्थी दिग्विजयी भारत के निर्माण के लिए सब प्रकार के उद्यम की पराकाष्ठा करें। संपूर्ण विश्व को समस्यामुक्त कर सुखशांति की राह पर आगे बढ़ाये। सब प्रकार की विकट परिस्थितियों का यशस्वी निरसन करने का यही एकमात्र, अमोघ, निश्चित व निर्णायक उपाय है।


इसलिए नित्य शाखा की साधना के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को हिन्दुत्व के संस्कारों तथा गौरव से परिपूरित कर, निःस्वार्थ व भेद तथा दोष से रहित अंतःकरण से तन-मन-धन पूर्वक देश, धर्म, संस्कृति व समाज के लिए जीवन का विनियोग करने की प्रेरणा व गुणवत्ता देकर, सम्पूर्ण समाज को संगठित व शक्तिसंपन्न स्थिति में लाने का संघ का कार्य चल रहा है। पूर्ण होते तक इस कार्य को करते रहने के अतिरिक्त संघ का और कोई प्रयोजन अथवा महत्वाकांक्षा नहीं है। केवल आवश्यक है, इस पवित्र कार्य को समझकर, उसे अपना कार्य मानकर आप सभी सहयोगी भाव से इसमें जुट जायें। यही आपसे विनम्र अनुरोध तथा हृदय से आवाहन है

Tuesday, October 19, 2010

फिलाडेल्फिया मधील भारतीय मंदिरात रावण दहनाचा कार्यक्रम

फिलाडेल्फिया -

दसऱ्याच्या दिवशी फिलाडेल्फिया मधील भारतीय मंदिरात सायंकाळी रावण दहनाचा कार्यक्रम मोठ्या उत्साहात संपन्न झाला. मंदिराच्या कार्यकर्त्यांनी तयार केलेल्या महाकाय रावण प्रतिमेचे दहन करण्यात आले.



आपणा सर्वांमध्ये रावणरूपी अहं, क्रोध, मोह, मद, मत्सर असे विविध दुर्गुण वसलेले असतात. आशा दुर्गुणांचे दहन करून नवचैतन्य, प्रेम,सद्भाव, समाधान, परोपकार, समाजसेवा अशा विविध सद्गुगुणांना अंगिकारण्याचे महत्व या निमित्ताने श्री. मुकुंद कुटे यांनी विषद केले.
अबालवृद्धांनी या कार्यक्रमाचा आनंद लुटला.


भारताबाहेर राहूनही आपल्या सणसंस्कृतीचे जतन करणाऱ्या या कार्यक्रमाची चित्रफित पहा:
http://www.youtube.com/watch?v=AxYkioJQACE&feature=player_embedded


कार्यक्रमाचे फोटो पाहण्यासाठी खालील लिंक वर क्लिक करा:

http://globalmarathi.com/Tiny.aspx?xA1770WC

प्राचार्य शिवाजीराव भोसले यांची 'स्वामी विवेकानंद' ही लेखमाला आपल्या मित्रमंडळींना पाठवून त्यांच्या स्मृतीस अभिवादन करावे ही नम्र विनंती.

'परमेश्वर' संकल्पनेत सर्व धर्म - प्राचार्य शिवाजीराव भोसले (भाग १४)


रामकृष्ण परमहंस आणि स्वामी विवेकानंद हे गुरू-शिष्य म्हणून ओळखले जातात. सतत साडेपाच वषेर् चाललेल्या एका विचारसंगराची समाप्ती या अढळ संबंधाच्या निमिर्तीत झाली. रामकृष्णांनी जे अनुभवले ते विवेकानंदांनी अभ्यासले, आत्मसात केले आणि जगाला ते समजावून देण्याचा प्रयत्न केला.




विवेकानंद हे रामकृष्णमय झाले तरी त्यांच्या ठायी असणारा एक बुद्धिवादी वारंवार आक्रमक पवित्रा घेत असे. ते म्हणत : जो विधवांची आसवे पुसू शकत नाही आणि भुकेकंगालाला घासभर अन्न देऊ शकत नाही, अशा देवाची पूजा कशासाठी करावयाची? भयभीत भक्तापेक्षा निर्भय नास्तिक परवडला, जो निर्भय तो निर्मळ राहू शकतो.


सर्वांना असे ठणकावून सांगणारे स्वामीजी रामकृष्णांच्या स्मरणाने अनेकदा व्याकूळ होत. त्यांचा धावा करीत. ''गुरूदेव, मी निघालो आहे. मी येतोच तुमच्याकडे. हे मानसन्मान, ही व्याख्याने आणि मानपत्रे मला नकोत. मला तुमच्या चरणाजवळ येऊन थांबावयाचे आहे. तेच माझे वैकुंठ आहे.''


रामकृष्णांचा सहवास लाभल्यामुळे विवेकानंदांना मनाची शांती लाभली. या सहवासानंतर त्यांनी आपल्याच मनाशी विचार करून रामकृष्णांच्या जीवनाचे सार संक्षेपाने सांगितले ते कांही प्रमेयांच्या स्वरूपात. ती प्रमेयसूत्रे अशी :


' परमेश्वर' या संकल्पनेत सर्व धर्मांचे सार सामावले आहे. त्याच्या अस्तित्वाचा अनुभव हेच जीवनाचे परमप्राप्तव्य आहे. हाच सर्व धर्मांचा अंतिम निष्कर्ष आहे.


जेव्हा हा दिव्य अनुभव येतो, तेव्हा सर्व चर्चा थांबते. सर्व व्याख्याने, भाषणे व प्रवचने शेवटी शून्यवत ठरतात. या संदर्भात रामकृष्ण दोन दाखले देत. मधमाशीचा गुंजारव मध मिळाल्यावर थांबतो. ती फुलझाडावरच्या फुलांपर्यंत व नंतर फुलातील मधापर्यंत जाऊन पोहोचली की तिची गुणगुण संपते... एखादे रिते भांडे किंवा घागर भरत असताना अनेक आवाज ऐकू येतात. भांडे भरताच आवाज थांबतो. साक्षात्कार घडला की, बोलणे ओसरते.


अनेक विद्वान आणि पंडित सतत बोलतात. आकाशात उंचावर पोहोचूनही गिधाडांचे लक्ष सडलेल्या गोष्टीभोवती घोटाळत राहते. त्याप्रमाणे पंडितांचे मन वासनाविश्वात रेंगाळते. रामकृष्णांचे बोलणे हे एका यतीचे उद्गार होते. ''धर्म अनेक असले तरी त्यांचे अनुभवविश्व एकच असते.'' नदीकाठच्या घाटावर पाणी भरणारा कोणी पाण्याला 'जल' म्हणून संबोधील, कोण 'नीर' हे नाव देईल, कोणी त्याला 'वॉटर' म्हणेल. शेवटी पाणी तेच असणार. तसेच शाक्तांचा शिव, वैष्णवांचा विष्णू, वेदान्ती मंडळींचे ब्रह्मा या भिन्न शब्दांनी सूचित होणारे परमतत्त्व मूळात एकच आहे. मुस्लिमांचा अल्ला तोच आहे. त्याची नावे अनेक; पण रूप मात्र एक.


ज्ञान आणि भक्ती यापैकी कोणत्याही मार्गाने चालत राहिले, तरी शेवटी साधक परमतत्त्वाच्या पंढरीला जाऊन पोहोचतो. मूळ तीर्थक्षेत्र एकच. त्याच्याकडे येणारे मार्ग अनेक दिशांनी येतात; पण शेवटी एकमेकांना मिळतात व संपतात.


विवेक, वैराग्य आणि ज्ञान स्वत: संपादन करण्यापेक्षा देवाचा धावा करावा म्हणजे प्रभुकृपेने सगळेच मिळून जाते. मूल खेळात रमते तेव्हा त्याला विसरून आई आपल्या उद्योगात गुंतून पडते. मुलाचे रडणे कानी पडताच काम सोडून त्याला कडेवर घेते व खाऊ देते. देव भक्ताला असेच कडेवर घेतो; पण भक्त हा अजाण अर्भकासारखा धाय मोकलून धावा करणारा असावा लागतो.


देव सगुण व साकार मानावयाचा की निर्गुण निराकार मानावयाचा? रामकृष्ण म्हणतात : ज्वाला हे झाले अग्नीचे सगुण रूप, उष्णता हे झाले निराकार रूप. ईश्वर हा व्यक्तिगत रूपात प्रकट होतो. कधी तो त्या पलीकडे वेगळ्या रूपात राहू शकतो. वळणे घेत धावणारा साप हे झाले त्याचे सगुण रूप, धावताना दिसणारी त्याची वळणे हे त्याचे मावळणारे रूप होय. परमार्थाच्या क्षेत्रात काथ्याकूट करणारे अनेक असतात. पण त्याची गरज आहे का? आमराईत जाताच आंबे घेऊन खाणारा तो शहाणा माणूस! या उलट झाडांची, फांद्यांची व पानांची गणती करीत बसणे म्हणजे शुद्ध वेडेपणा होय. तहानलेल्या जिवाने ओंजळीने पाणी घ्यावे व प्यावे. तळ्यात एकूण पाणी किती याचा विचार करीत बसू नये. व्यर्थ विचाराने काही लाभ घडत नाही. प्रत्येकाने परमेश्वर प्राप्तीला जीवनात अग्रक्रम दिला पाहिजे. तो परमपुरुषार्थ आहे. समाजकार्य हे तुलनेने दुय्यम होय. परमेश्वरप्राप्ती शक्य व्हावी यासाठी दोन प्रकारच्या वासनांपासून मन मुक्त झाले पाहिजे. पहिली ती विषयवासना आणि दुसरी ती दव्य लालसा. कामिनी आणि कांचन यांचे आकर्षण ओसरत नाही तोपर्यंत प्राप्तीची शक्यता नाही.


परमेश्वर या विषयाच्या संदर्भात अनेक समकालीनांची अनेक मते होती. माणूस हा चुकणारा आहे. तो परमेश्वरापासून दूरच राहणार. असा विचार मांडणाऱ्यांना ते सांगत की, माणूस हे परमेश्वराचे अपूर्ण रूप आहे; अंशावतार आहे. जे कोणी भक्तीचे महिमान गात आणि आश्वासन देत की, ''एकदा भक्तिप्रवाहात उतरलात की थेट परमेश्वर नावाच्या समुदाला जाऊन मिळाल.'' रामकृष्ण म्हणत : व्यवहारी माणूस नदीत बुडी मारतो व पुन्हा काठावर येतो. त्याला नदीबरोबर वाहात जाता येत नाही. प्रापंचिकांची रीत अशीच असावी. घरदार सोडून, मुलेबाळे विसरून, पत्नीला डावलून एकदम देवाशी एकरूप होण्याची आकांक्षा त्याने बाळगू नये. संसार हा एक उत्तम किल्ला आहे, मजबूत गड आहे. माणूस या गडात राहून वासनांचे हल्ले परतवू शकतो. संसारी माणसाने प्रपंचाचा निषेध करू नये.


रामकृष्णांची विवेचनसुलभता बुद्धिमंतांनाही प्रभावित करणारी होती. स्वत: रामकृष्ण मूतिर्पूजेत रमणारे, तसेच निर्गुण निराकारात विरून जाणारे होते. त्यामुळे त्यांनी निरक्षरांचा तिरस्कार केला नाही. पांडित्याचा पुरस्कार करतानाही त्यांना संकोच वाटला नाही. रामकृष्णांच्या घरीदारी विद्वान आणि भाबडे, अधिकारी आणि सामान्यजन, महालात राहणारे, अत्तराचे दिवे जाळणारे कोणी असत. अंधारात काळ काढणारे बेघर भक्त पण असत.


रामकृष्णांच्या पुढे कोणी तरी 'लोकसेवा' हा शब्द उच्चारला. रामकृष्णांनी त्यात दुरुस्ती केली. ते म्हणाले, जीवाची शिवभावे सेवा हा खरा धर्म होय. रामकृष्ण संघाने 'सेवा' या व्रताचा समावेश आपल्या आचारसंहितेत केला. जे का रंजले गांजले। त्यासी म्हणे जो आपुले। तोची साधू ओळखावा। देव तेथेची जाणावा।। हा तुकारामांचा उद्गार रामकृष्णांच्या मुखी पुन्हा प्रकट झाला. सेवेत उपकाराची ऐट नसावी. उपासनेची भावना असावी. अनेक विदेशी समाजसेवक 'मिशनरी' म्हणून भारतात आले. रामकृष्ण-विवेकानंदांनी तोच भाव ओळखला व स्वीकारला. ''रामकृष्ण मिशन'' ही संस्था ही एक चळवळ झाली आहे. कोलकात्यापासून किल्लारीपर्यंत रामकृष्ण संघाचे सेवाकार्य चालत असते.


या संघाचे कार्यकतेर् हे कर्मरत विद्वान आहेत. अनेक विषयांवर प्रभुत्व असणारे, उदंड ग्रंथकर्तृत्व दाखविणारे हे रामकृष्ण मिशनचे लोक व्रतस्थ व संन्यस्त आहेत.


विवेकानंदांनी जगभर संचार केला, मानमान्यता मिळविली; पण स्वत:ला रामकृष्णांचे सेवक व पाईक म्हणवून घेतले. त्यांना प्रिय असणारा मंत्र होता : '' ॐ नमो भगवते श्री रामकृष्णाय''

( क्रमश:)
- प्राचार्य शिवाजीराव भोसले
 

Monday, October 18, 2010

British media urges Wayne Rooney to learn from Sachin Tendulkar.

Tue, Oct 19 09:39 AM


The British media has lavished praise on iconic batsman Sachin Tendulkar and according to a column written by former England cricketer Ed Smith, Manchester United star Wayne Rooney should learn how to turn expectations into inspiration.

In an article headlined 'Sanctuary of crease lets Tendulkar reveal genius,' Smith had written, "Twice last week, sportsmen have proved me spectacularly wrong. First, Sachin Tendulkar reached 14,000 Test-match runs. And that's not the amazing part.


"It took him fewer innings to get from 13,000 to 14,000 than any other 1,000-run chunk of his career. A case could be made that he is at his best now, at 37," the newspaper noted.


The article said Tendulkar and Rooney were destined for rare greatness, even from teenage. Tendulkar has gone on and done it.


A year ago, Rooney looked placed to do the same. But now, as never before, there are real doubts that he will become the player we once assumed he would be.


"Make no mistake, Tendulkar's career has not been as serene as it might look, there have been arguments with coaches and match referees, an unsatisfactory spell as captain and long phases when the muse has deserted him.


"Tendulkar has had countless moments when frustration could have overwhelmed him. He has never blown his top, never lost his dignity. Instead,frustration has inpired him."


"Above all, his career has been played out under the shadow of phenomenal expectation. Footballers in England have to deal with being heroes. In India it is even worse: they are meant to be Gods."


"According to the report 'Tendulkar has come to the conclusion that there is one place where he is free from the hassles of fame. There is one realm where he cannot be pestered. It is called the crease.


"With the bat in his hands, Tendulkar is the conductor of his own life, not just a participant in a soap opera. There, out in the middle, no one can stop him being himself - not a restless media, not overly demanding fans, not intering coaches or greedy agents."


"It is the ultimate irony: the greatest actors are never freer than when they're on the stage. That is the way for Rooney to find the way out of his present difficulties - he must have the bravery to express himself on the pitch, to make it his sanctuary."


"If he allows himself to become embittered and resentful, he will not only become estranged from his fans, but also from his talent. No wonder the ball is bouncing off him at the moment; he probably would like to repel the whole game.


"Instead, he must learn to love it again. Shamed by alleged events off the pitch and embarrassed by events on it, Rooney could be forgiven for feeling sorry for himself," the report said.


"It would be a normal thing to feel. But he doesn't aspire to normality, but to greatness. And greatness, as Tendulkar has showed demands a superhuman degree of resilience and emotional dexterity. Rooney must locate his inner Tendulkar, a genius who got even with his critics by scoring hundreds."


"For Rooney, in every sense, it's time to turn the pressure into goals."
Pak, China two major irritants for India's security:Army Chief


PTI
Friday, October 15, 2010 AT 02:23 PM (IST)


New Delhi - Describing Pakistan and China as "two major irritants" for India's security, Army chief Gen V K Singh today said the armed forces should ensure the country has a "substantial" conventional war capability to fight in a nuclear scenario.


"We have two major irritants. One, there is a problem of governance in Pakistan where terror outfits receive support and where internal situation is not very good. And, therefore, it can have a fallout in terms of how these things impact India.


"Till the time the terrorist infrastructure remains intact on the other side, we have something to worry," he said inaugurating a seminar on 'Indian Army: Emerging Roles and Tasks' here.


He also referred to the threat posed by China which was rising both economically and militarily.


"Although we have a very stable border, yet we have a border dispute.
Hindu terror talk done to appease Muslims: RSS chief

BS Reporter / Mumbai October 18, 2010, 0:46 IST

There is no such thing as ‘saffron terrorism’ and it is an invention of the Congress-led UPA government to appease Muslims, said Mohanrao Bhagwat, chief of the Rashtriya Swayamsevak Sangh (RSS), at its annual Vijayadashmi rally in Nagpur, at the Reshimbagh grounds.


“A handful of Hindus were arrested in some framed-up cases and the whole Hindu community is being tarnished to appease the minority,” was Bhagwat’s dismissal of the cases where police have charged Hindu bodies with planning bomb blasts.

Addressing the annual Dussehra rally at Reshim Bagh ground here, RSS chief Mohan Bhagwat said, "Terrorism and Hindus are the oxymoron and can never be related to each other. This was an attempt to weaken strength of the Hindus in India and at the same time to appease the Muslims."Nitin Gadkari, national head of the Bharatiya Janata Party, attended the rally, dressed in the RSS uniform of khaki shorts, white shirt and black cap. He spent three hours there. Hridayanath Mangeshkar, brother of playback singer Lata Mangeshkar, was a guest of honour.


A handful of incidents involving Hindus were reported and for that to blame the entire Hindu community was improper and unjust, Bhagwat said.

"Hindus are generally not involved in terrorism," he said.



On Congress general secretary Rahul Gandhi equating the RSS with the Students Islamic Movement of India (SIMI), Bhagwat said the RSS needed no certificate. it would, he said, continue its activity of uniting people with nationalist fervour.

He said the Ayodhya verdict of the Allahabad high court, that came just before Dussehra, was an auspicious sign. It is an opportunity provided to every citizen, including Muslims, to make a new beginning for affectionate co-existence. The court, said the RSS chief, had endorsed the Hindu belief that Ayodhya was the birthplace of Rama and a temple should be built there. The agitation in support of construction of a Ram temple there was not against any particular religion, he said.

Bhagwat alleged the central government should have no negotiations with insurgents in Kashmir or their supporters.

Sunday, October 17, 2010

             !!!! आप सभीको विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएं !!!!


आओ हम सब भारतमाता वैभवशाली करने का निर्धार करें !!!


इस शुभ मुहूर्त पर प्रभु रामचंद्र का स्मरण करते हुए पराजय की सीमाएं लाँघ कर सुख, समृद्धि, यश और कीर्ति के उच्चतम शिखरपर हम सब भारतीय आगे बढ़ें यही कामना करता हूँ !!!



 !!! भारतमाता की जय !!!   जय श्रीराम !!!

Wednesday, October 13, 2010

निकिताची चॉकलेट स्टोरी (माझा छंद, माझा व्यवसाय)

''असावा सुंदर चॉकलेटचा बंगला'' असं स्वप्न लहानपणी सगळेच बघतात. पण त्यातली एखादीच निकिता असते, जी वयाच्या पंधराव्या वर्षापासून ह्या स्वप्नातल्या चॉकलेट्सना मूर्त स्वरूप देऊ लागते, छंद म्हणून चॉकलेट्स बनवता बनवता केवळ सतरा वर्षे वय असताना चॉकलेट्सचे आणि फक्त चॉकलेट्सचे दुकानही सुरू करते! ज्या वयात इतर मुले-मुली कॉलेजला बुट्ट्या मारून स्वच्छंद जगणे, पार्ट्या, मित्रमैत्रिणी यांच्यात मश्गुल असतात त्या वयात अवघ्या एकोणिसाव्या वर्षी निकिता आपल्या तिसऱ्या ''चॉकलेट स्टोरी''च्या दुकानाचे मोठ्या दिमाखात अनावरण करते!!

निकिता मल्होत्रा. वय वर्षे एकोणीस. चुळबुळी, उत्साही, तडफदार आणि कल्पक! मित्र- मैत्रिणींने घेरलेली, आपल्या बिनधास्त स्वभावामुळे लोकप्रिय, सतत काही ना काही करत राहणारी, कधी सेवाभावी कार्यात भाग घेऊन आपला आनंद चिमण्या जीवांबरोबर वाटणारी. घरात असताना आपल्या लाडक्या चॉकलेट्सवर प्रयोग करून बघणे, नव्या रेसिपीज करून पाहणे हा छंद जोपासणारी!

मी तिला तिच्या व्यवसायाविषयी प्रश्न विचारणार म्हटल्यावर तिने अगदी टिपीकल टीन-एजरप्रमाणे ह्या अगोदर प्रसिद्ध झालेल्या तिच्या वेगवेगळ्या मुलाखतींच्या लिंक्सच मला इ-मेलने धाडून दिल्या. त्यातून मला बरीच माहिती मिळाली. तरीही माझं समाधान होत नव्हतं. मग तिला पुन्हा काही प्रश्न विचारले ज्यांची तिने तिच्या शैलीत मस्त बिनधास्त, सडेतोड उत्तरे दिली. ह्याच प्रश्नोत्तरांचा सारांश तुमच्यासमोर सादर करत आहे.

निकिताला तिचे चॉकलेट्सचे स्वप्न प्रत्यक्षात आणायला प्रेरणा दिली ती तिच्या केटरिंग व्यवसायात असलेल्या वडिलांनी! तिला सुरुवातीपासून नवनव्या प्रकारची चॉकलेट्स बनवून, त्यांचे वेधक आकर्षक पॅकिंग करून आपल्या मित्रपरिवाराला, स्नेह्यांना ते भेटीदाखल द्यायची अतिशय आवड होती. वडिलांनी ही आवड हेरली आणि तिला केवळ चॉकलेट्स विकणारे एक दुकानच सुरु करण्याचे सुचवले. कल्पना खूपच आगळी होती. तेव्हा निकिताचे वय होते फक्त सतरा! वडिलांनी सुरुवातीचे भांडवल उभे केले. परिवारातील बाकीचे सदस्य भक्कमपणे तिच्या पाठीशी उभे राहिले. भावाने सहजच ''चॉकलेट स्टोरी'' हे नाव सुचवले आणि साकार झाले निकिताचे स्वप्न! त्याबरोबर तिची मेहनत, प्रयत्न आणि जिद्द तर होतीच! वडिलांनी तिला सांगितले, ''फक्त विचारच करत बसण्यापेक्षा निर्णय घे आणि स्वतःच्या चुकांमधून शीक. ''

कल्याणीनगर, पुणे येथे २००८ साली पहिल्या दुकानाची सुरुवात तर केली. पण चॉकलेट्सच्या दुकानाची ही कल्पनाच इतकी अभिनव, शिवाय फक्त चॉकलेट्ससाठी एवढा खर्च करायचा की नाही, ह्याविषयीही लोक साशंक असायचे! पण हळूहळू निकिताच्या चॉकलेट्सचा दर्जा आणि चव ह्यांनी खवय्यांच्या व चॉकलेट-रसिकांच्या मनात खास स्थान निर्माण केले. तिच्या चॉकलेट्सच्या कल्पक वेष्टणांमुळेही त्यांची मागणी वाढू लागली. गिऱ्हाईकांच्या फर्माइशीनुसार विविध प्रकारची, डिझाइनची व सुंदर वेष्टनांतील चॉकलेट्स ही निकिताची व तिच्या दुकानांची खासियत ठरली. सुरुवातीला हाताखाली काम करणाऱ्या लोकांना हाताळतानाही तिला प्रश्न आलेच! कल्पना करा, सतरा वर्षांच्या मुलीला चॉकलेट्सची गुणवत्ता, चव, पॅकेजिंगपासून एका व्यवसायाशी संबंधित असलेले सर्व प्रकारचे निर्णय आपले आपण घ्यायचे होते! इथे तिचा आत्मविश्वास आणि कुटुंबाचा भरभक्कम आधार खूपच कामी आला.

दोन वर्षांमध्ये निकिताने तीन स्टोअर्स उघडली. सुरुवातीला तिच्या हाताखाली तीन लोक कामाला होते, आज त्यांची संख्या सतरा आहे. हे लोक तिच्या स्टोअरमध्येही मदत करतात व तिच्या चॉकलेटच्या कारखान्यातही काम करतात. कारखाना? हो, हो, तुम्ही बरोबरच वाचत आहात! आज निकिताचा स्वतःचा चॉकलेट्सचा कारखानाही आहे, जिथे ती वेगवेगळ्या प्रकारची चॉकलेट्स व डेझर्टस बनवत असते!

तिच्या कारखान्यात बारा प्रकारची ट्रफल्स बनवली जातात. त्यांच्या फ्लेवर्सविषयी निकिता सांगते, ''डच, कॉफी, हेझल नट, ब्राऊनी, स्ट्रॉबेरी, नट बकेटस, बिटर बाँब्ज याशिवाय आम्ही ऑर्डरप्रमाणे शुगर-फ्री म्हणजेच शर्करामुक्त ट्रफल्सही बनवतो. डार्क चॉकलेट्स व व्हाईट चॉकलेट्सच्या व्यतिरिक्त आमची खासियत म्हणजे चॉकलेट बुकेज व चॉकलेटचे कारंजे आहे. खिशाला परवडणारी किंमत आणि डिझाईनर पॅकेजिंग ह्यामुळे तरुणाईत ही चॉकलेट्स अल्पावधीत प्रिय झाली आहेत. त्यांना फ्रीजमध्ये फक्त उन्हाळ्यात ठेवावे लागते. आणि किमान सहा महिने ती टिकतात.''

निकिताच्या चॉकलेट्सचे अजून एक वैशिष्ट्य म्हणजे त्यांचे अप्रतिम सुंदर सादरीकरण! बेबी अनाऊन्समेंटस, डोहाळजेवणांसाठी ती चॉकलेट्सना छोट्या छोट्या बाबागाड्यांमध्ये आणि इवल्या इवल्या बुटांमध्ये पॅक करते; लग्न आणि साखरपुड्यांसाठी चॉकलेट्सची आकर्षक चमचमत्या तबकांमध्ये मांडणी करते; लहान मुलांच्या वाढदिवस पार्ट्यांना तिची चॉकलेट्स रंगवण्याच्या खडूंच्या रूपात येतात तर आय. पी. एल. चाहत्यांसाठी झूझू जोडप्याच्या रूपात तिची चॉकलेट्स अवतरतात. दिवाळी, राखी इत्यादी सणांसाठीही ती खास चॉकलेट्स बनवते व त्यांना त्या त्या प्रकारचे पॅकिंग करते. त्याची तबके तुम्ही आगाऊ नोंदणी करून किंवा दुकानाला समक्ष भेट देऊन खरेदी करू शकता.

काही खास ग्राहकही असतात, ज्यांच्यासाठी हौसेला मोल नसते आणि त्यांना त्यांच्या पसंतीच्या आकारात, स्वरूपात चॉकलेट्स हवी असतात. एका मुलीने तिच्या मित्राला त्याच्या वाढदिवसाला एकवीस वेगवेगळ्या प्रकारची चॉकलेट्स ऑर्डर देऊन खास बनवून घेतली. आयुष्याच्या प्रत्येक वर्षासाठी वेगवेगळ्या आकारात चॉकलेट्स बनवली होती. पहिल्या वर्षासाठी दुधाच्या बाटलीच्या आकाराचे चॉकलेट, दुसऱ्या वर्षासाठी चमच्याच्या आकारातील चॉकलेट, तिसऱ्या वर्षासाठी बुटांचा जोड, चौथ्यासाठी टेडी बेअर, पाचव्या वर्षासाठी रंगीत खडू असे करत करत एकविसाव्या वर्षासाठी शँपेनच्या बाटलीच्या आकारातील चॉकलेट असा तो संच त्या मुलीने आपल्या खास दोस्तासाठी निकिताकडून बनवून घेतला होता.

तिची चॉकलेट स्टोरीची वेगळी वेबसाइट तर आहेच, शिवाय फेसबुक आणि ट्विटरवरही चॉकलेट स्टोरीचे वेगळे अकाउंट आहे. एकदा जोडलेल्या ग्राहकांच्या संपर्कात राहण्यासाठी ती एस. एम. एस., ईमेल इत्यादी तंत्रज्ञान वापरते व वैयक्तिक संपर्कावरही अवश्य भर देते.

निकिताला व्यवसायात येणाऱ्या अडचणींविषयी विचारल्यावर ती चक्क खळाळून हसते! '' व्यवसाय म्हटल्यावर अडचणी ह्या असणारच! त्याशिवाय तो व्यवसाय वाटणारच नाही! मलाही येतात ना अडचणी... बऱ्याचदा हाताखाली काम करणाऱ्या लोकांशी संबंधित किंवा इतर छोट्या मोठ्या अडचणी असतात... पण त्यातूनच मार्ग काढण्यात थ्रिल आहे असं मला वाटतं! ''

मला उत्सुकता होती ती वेगळीच! एका व्यवसायात एवढ्या खोलवर गुंतल्यावर निकिताला तिचं कॉलेज लाईफ अजून वेगळ्या प्रकारे जगता आलं असतं, इतर मुलामुलींसारख्या जबाबदारीतून मुक्त जीवनशैलीला आपलंसं करता आलं असतं असं वाटत नाही का?

निकिता मात्र स्पष्टपणे सांगते की जे तिने स्वीकारलंय ते स्वतःच्या आवडीतून स्वीकारलंय! त्यामुळे कधी, कशाला व किती अग्रक्रम द्यायचा हे तिला तीन वर्षांच्या अनुभवानंतर पुरते कळून चुकले आहे. आजही तिचा दिवस ती सकाळी कॉलेजला जाऊन सुरू करते. दुपारी तिच्या वेगवेगळ्या कल्पनांना आकार देणे, नवनवीन डिझाइन्स बनविणे ह्यात जातो आणि सायंकाळी ग्राहकांच्या भेटी-गाठी, सोशल व्हिजिटस, इतर कार्यक्रमांसाठी राखीव असतात. मात्र सकाळचा नाश्ता आणि रात्रीचे जेवण या वेळांना निकिता आपल्या कुटुंबासाठी राखीव ठेवते. जर ऑर्डर्स, मागणी व कामाचा व्याप जास्त असेल तर त्याप्रमाणे तिचेही वेळापत्रक बदलते. पण तरीही आपल्या स्वतःच्या मर्जीनुसार, तिला हवे असेल तेव्हा ती कॉलेज-लाईफचा आनंद लुटते आणि कॉफीचा आस्वाद कधी मित्रमंडळींबरोबर घेता आला नाही तरी क्लाएंटसबरोबर नक्कीच घेते! शिवाय टीन-एजर म्हटल्यावर तिलाही घरातून बंधने ही आहेतच!

चॉकलेट स्टोरीचा तिचा अनुभव बघताना मला कुतूहल होतं ते तिच्या व्यावसायिक प्रशिक्षणाविषयी! इथेही ती आश्चर्याचा धक्का देते.तिने चॉकलेट्स बनवण्याच्या शिक्षणाव्यतिरिक्त कोणतेही खास व्यावसायिक प्रशिक्षण घेतलेले नाही. प्रारंभी घरातून सुरू केलेल्या ह्या व्यवसायात तिने स्वतःच्या प्रत्यक्ष अनुभवाच्या जोरावर पदार्पण केले आणि त्यानंतरही सगळ्या पायऱ्या शिकताना तिला व्यवहारच कामी आला. ''हा माझा बिझनेस आहे, '' ह्या भावनेतून बघितल्यावर त्याविषयी सगळे काही जाणून घेणे, त्यातील खाचाखोचा समजावून घेणे हे ओघाने येतेच असे निकिताला वाटते. पुस्तकी ज्ञानाला व्यवहाराच्या मुशीतून तावून सुलाखून काढल्यावरच त्याचा तुमच्या व्यवसायासाठी वापर करता येतो, मागणी आणि पुरवठ्याचा सिद्धांत प्रत्यक्ष व्यवहारात तसाच्या तसा वापरून चालत नाही ह्याचा पुरेपूर अनुभव निकिताने आपल्या व्यवसायात घेतला आहे.

मी तिला विचारले, एवढे कमी वय असण्याचा तुला व्यवसायात काही तोटा जाणवला का? तर तिचे उत्तर होते, ''सुरुवातीला तरी असेच वाटले होते की मला फार कोणी सीरियसली घेणार नाही! पण आश्चर्याची गोष्ट म्हणजे घडले अगदी उलट! आता तर माझ्या नव्या कल्पना व डिझाइन्स यांचीही काही मंडळी चक्क नक्कल देखील करतात!''

ह्या सर्व अनुभवातून तिला एक व्यक्ती म्हणून आणि एक व्यावसायिक म्हणून खूप काही शिकायला मिळाल्याचेही निकिता आनंदाने सांगते. चॉकलेट्सच्या व्यवसायाबद्दल तर तिच्या ज्ञानात भर पडली आहेच; शिवाय रोज वेगवेगळ्या ग्राहकांना हाताळल्यामुळे अनुभव मिळत आहे. ग्राहकांशी सौहार्दपूर्ण व्यवहार राखत निकिताने स्वतःला वेगवेगळ्या माध्यमांतून एक यशस्वी स्त्री व्यावसायिक म्हणून सिद्ध केले आहे.

पुढच्या काळातील तिच्या स्वप्नांविषयीही निकिता भरभरून बोलते. सध्या ती बी. कॉम च्या दुसऱ्या वर्षात शिकत आहे. अजून आयुष्यात तिला बरंच काही करायचं आहे! आतापर्यंत तिने रेडियो जॉकिंग, सूत्रसंचालन, अभिनय केलाय... स्वतःचे कपडे डिझाइन केलेत, साल्सा नृत्य शिकले आहे. भविष्यात तिला फॅशन डिझाईनर बनायचंय, लेखन करायचंय, बॅकपॅकिंग करायचंय, मेक-अप आर्टिस्ट बनायचंय आणि जमला तर स्वतःचा फूड-शो देखील करायचा आहे! तिचा मेसेज देखील असाच सुटसुटीत छान आहे : आयुष्य खूप छोटं आहे, जे काही करायचं ते आताच करायला हवं!

इतक्या लहान वयात कमालीचं यश मिळवूनही जमिनीवर आपली पावले घट्ट रोवून भविष्याला कवेत घेण्याची स्वप्ने उरी बाळगणारी ही निकिता मला भावली तशीच तुम्हालाही भावली का ते अवश्य कळवा!

कल्याणीनगर, औंध व कोरेगाव पार्क येथील तिच्या शॉप्सच्या पत्त्यासाठी व ईमेल, फोन संपर्क ह्यांसाठी तिची वेबसाइट अवश्य पाहा : www.chocolatestory.co.in


--- अरुंधती

nikita and his chocolatestory's photos











Tuesday, October 12, 2010

Indian Air Force Day


The Indian Air Force (IAF) is The Air Arm of the Indian armed forces. Its primary responsibility is to secure Indian airspace and to conduct aerial warfare during a conflict. It was officially established on 8 October 1932 as an auxiliary air force of the Indian Empire and the prefix Royal was added in 1945 in recognition of its services during World War II.


After India achieved independence from the United Kingdom in 1947, the Royal Indian Air Force served the Union of India, with the prefix being dropped when India became a republic in 1950.


Since independence, the IAF has been involved in four wars with neighbouring Pakistan and one with the People's Republic of China. Other major operations undertaken by the IAF include Operation Vijay - the invasion of Goa, Operation Meghdoot and Operation Cactus. Apart from conflicts, the IAF has been an active participant in United Nations peacekeeping missions.


The President of India serves as the Commander-in-Chief of the IAF. The Chief of Air Staff, an Air Chief Marshal (ACM), is a four star commander and commands the Air Force. There is never more than one serving ACM at any given time in the IAF. One officer has been conferred the rank of Marshal of the Air Force, a 5-star rank and the officer serves as the ceremonial chief.


With strength of approximately 170,000 personnel and 1,300 aircraft, The Indian Air Force is the world's fourth largest air force after the United States Air Force, Russian Air Force and China's People's Liberation Army Air Force. In recent years, the IAF has undertaken an ambitious expansion and modernisation program to replace its aging Soviet-era fighter jets.

Mission

The IAF's mission is defined by the Armed Forces Act of 1947, Constitution of India and the Air Force Act of 1950, in the aerial battlespace, as:


“Defense of India and every part thereof including preparation for defense and all such acts as may be conducive in times of war to its prosecution and after its termination to effective demobilization.”


A Westland Wapiti, one of the first aircraft of the Indian Air Force.


The Indian Air Force was established in British India as an auxiliary air force of the Royal Air Force with the enactment of the Indian Air Force Act 1932 on 8 October that year and adopted the Royal Air Force uniforms, badges, brevets and insignia.


On 1 April 1933, the IAF commissioned its first squadron, No.1 Squadron, with four Westland Wapiti biplanes and five Indian pilots. The Indian pilots were led by Flight Lieutenant (later Air Vice Marshal) Cecil Bouchier. Until 1938, No. 1 Squadron remained the only squadron of the IAF, though two more flights were added.


The Air Force grew to seven squadrons in 1943 and to nine squadrons in 1945. The IAF helped in blocking the advance of the Japanese army in Burma, where its first air strike was on the Japanese military base in Arakan. It also carried out strike missions against the Japanese airbases at Mae Hong Son, Chiang Mai and Chiang Rai in northern Thailand. In recognition of the crucial role played by the IAF, King George VI conferred it the prefix "Royal" in 1945.


During the war, many youth joined the Indian National Army. Forty five of them (known as the Tokyo Boys) were sent to train as fighter pilots at the Imperial Japanese Army Air Force Academy in 1944 by Subhas Chandra Bose. After the war, they were interned by the Allies and were court-martialled. After Indian independence, some of them rejoined the IAF for service.

History

The Indian Air Force was established in British India as an auxiliary air force of the Royal Air Force with the enactment of the Indian Air Force Act 1932 on 8 October that year and adopted the Royal Air Force uniforms, badges, brevets and insignia. On 1 April 1933, the IAF commissioned its first squadron, No.1 Squadron, with four Westland Wapiti biplanes and five Indian pilots. The Indian pilots were led by Flight Lieutenant (later Air Vice Marshal) Cecil Bouchier. Until 1938, No. 1 Squadron remained the only squadron of the IAF, though two more flights were added.


During World War II, the red blob was removed from the IAF roundel to eliminate confusion with the Japanese Red Sun Emblem. The Air Force grew to seven squadrons in 1943 and to nine squadrons in 1945. The IAF helped in blocking the advance of the Japanese army in Burma, where its first air strike was on the Japanese military base in Arakan. It also carried out strike missions against the Japanese airbases at Mae Hong Son, Chiang Mai and Chiang Rai in northern Thailand.


In recognition of the crucial role played by the IAF, King George VI conferred it the prefix "Royal" in 1945. During the war, many youth joined the Indian National Army. Forty five of them (known as the Tokyo Boys) were sent to train as fighter pilots at the Imperial Japanese Army Air Force Academy in 1944 by Subhas Chandra Bose. After the war, they were interned by the Allies and were court-martialled. After Indian independence, some of them rejoined the IAF for service.

Land-Based Air Defence

The IAF currently operates the S-125 Pechora and the 9K33 Osa as Surface-to-air missile systems. The IAF is also currently inducting the Akash medium range surface-to-air missile system. A total of 8 squadrons has been ordered so far.



Ballistic missiles

The IAF currently operates the Prithvi-II short-range ballistic missile. The Prithvi-II is an IAF-specific variant of the Prithvi ballistic missile.

Anti-Ballistic missile systems

The S-300 SAM serves as an Anti-Tactical Ballistic Missile system in the IAF. The S-300 is also able to detect, track, and destroy incoming cruise missiles and low-flying aircraft.

चैत्रांगणातून संस्कृती शिक्षण

रांगोळी हा विषयच असा आहे की तो शब्द जरी कानावर पडला तरी मराठी माणसाच्या चेह-यावर स्मितरेषा उमटतेच. पुण्या-मुंबईकडे ठिपक्यांच्या पण आधुनिक रांगोळ्या काढण्याची पद्धत आहे. त्यांना आपल्या संस्कृतीत विशेष असे महत्व दिसत नाही. अशाच रांगोळ्या अगदी अमेरिकेत पण काढण्याचा प्रयत्न झालेला दिसतो. दक्षिण महाराष्ट्र म्हणजे सांगली जिल्हा व उत्तर कर्नाटक म्हणजे बेळगाव जिल्हा या ठिकाणी दरवर्षी चैत्र महिन्यात रोजच तुळशीवृंदावनापुढे चैत्रांगण काढायची पद्धत आहे. वसंत ऋतूत थंडी संपून धरतीमाता नवे हिरवे वस्त्र धारण करू लागलेली असते. तिचे स्वागत करण्यासाठी बायका आपले अंगण या रांगोळ्यांनी सजवतात.
चैत्रांगणात बहुतेककरून पारंपारिक रांगोळ्या रेखाटण्याची प्रथा आहे. शंख, चक्र, गदा, पद्म, चंद्र, सूर्य, गोपद्म व स्वस्तिक या रांगोळ्या काढण्याची प्रथा भारतभर दिसून येते. शंख, चक्र, गदा, पद्म ही विष्णूची चार आयुधे. एखादे युद्ध पुकारायचे असल्यास त्याची शत्रूला ग्वाही देण्यासाठी शंख वाजवण्याची प्रथा रामायण, महाभारत काळात होती. चक्र म्हणजे सुदर्शन चक्र व गदा ही शत्रूशी युद्ध करतांना वापरावयाची शास्त्रे होत. कमळ हे माणसाच्या मनाच्या शुद्धतेच द्योतक आहे. आकाशातील चंद्र तारे व सूर्य हे पृथ्वीचे रक्षक व पोशक आहेत. पृथ्वीवर होणारे असंख्य उल्कापात चंद्र झेलतो. त्यामुळे पृथ्वी सुरक्षित रहाते. सूर्यामुळे पृथ्वीवरचे जीवन शक्य होते. स्वस्ति हा शब्द सु आणि अस्ति अशा दोन शब्दांनी बनलेला आहे. त्याचा अर्थ 'चांगले असो' असाच आहे. स्वस्तिक म्हणजे चांगले करणारा. गोपद्म म्हणजे गाईची पावले. हिंदू धर्मात गाईचे महत्व असायचे कारण म्हणजे हिंदू संस्कृती ही शेतीप्रधान होती. शेतीसाठी बैल लागतात. गायीचे रक्षण केले तरच बैल निपजू शकतात.
चैत्रातील शुद्ध तृतीयेपासून ते वैशाखातील अक्षयतृतीयेपर्यंत तुळशीवृंदावनासमोर चैत्रांगण काढायची पद्धत असते. त्यात चैत्रगौरीचा पाळणा, पंखे, प्रवेशद्वार, नागफूले यांचा प्रामुख्याने समावेश असतो असा पाळणा काढायची पद्धत काही वन्य जमातीतही आढळते. चैत्रगौर म्हणजे धरणीमाता. हिवाळ्यातील बोचरी थंडी संपून आता चैत्र महिन्यात झाडांना हिरवी पालवी फुटू लागलेली असते. चैत्रगौरी बरोबर तिची मैत्रीणपण काढायची पद्धत आहे. दोघीजणी हिरवे वस्त्र लेऊन नटल्या आहेत. पार्वतीला चैत्रगौर म्हणतात. तेव्हा तिच्याबरोबर तिची सखी हवीच. वसंत ऋतूपासून हवा गरम होऊ लागते. त्यांना गरम होणा-या हवेत थंडावा देण्यासाठी दोन्ही बाजूला दोन वाळ्याचे पंख काढायचीपण पद्धत आहे. दोन्ही पंखे समान मापाचे पण त्याचबरोबर एकमेकांचे आरशातील प्रतिबिंब असावेत, तसे काढण्यात कौशल्य असते.
 शिवाय मोर, हत्ती, मासा, हंस, तुळशी वृंदावन, शंकराची पिंड, गाय-वासरू, गरुड वगैरे गोष्टी काढायची पण प्रथा दिसून येते. माणसाने राजहंसाप्रमाणे असावे असे म्हणतात. हंस जसा त्याच्यासमोर दूध व पाणी मिसळून ठेवले असता फक्त त्यातील दुध पितो व पाणी वगळतो असा समज आहे, त्याप्रमाणे माणसाने नेहमी चांगल्याची निवड करावी अशी हिंदू धर्मात शिकवण आहे. पोपटाचे पण महत्व गीता-ज्ञानेश्वरीत सांगितलेले आहे. पोपट जसा एखाद्या नळीवर बसला व चुकून त्याचे खाली डोकं वर पाय झाले तर त्याला जग कसे सगळे उलटे दिसेल, त्याच प्रमाणे माणसाला या जगाविषयी भ्रम असतो, असे म्हटले आहे. तसच सरस्वतीचे वाहन मोरच का? मोराच्या पिसात विलक्षण ज्ञान भरलेले आहे. त्याचा खरा रंग कसा असतो. परंतु भोतीकशास्त्रातील डिफ्रॅक्शन म्हणून ही गोष्ट असते त्याच्या कारणाने सूर्यप्रकाश पिसावर पडला की त्याच्या विभाजनाने रंगांचा विलोभनीय आकृतिबंध दिसतो. हत्तीला गजलक्ष्मी म्हटलेले आहे. ज्याला हत्ती पाळणे शक्य असते, त्याच्याकडे संपत्ती असणे साहजिकच आहे.
खालील ठिपक्यांच्या रांगोळीत मी खास पारंपारिक मराठी रांगोळ्या असे म्हणते. नारळ, स्वरस्वती, बिल्वपत्र व चक्रव्यूह या रांगोळ्या महाराष्ट्राशिवाय इतर ठिकाणी दिसत नाहीत. कोयरी, कासव, नाभिकमळ व ज्ञानकमळ या रांगोळ्या महाराष्ट्रात व कर्नाटक, आंध्र, तामिळनाडू यांच्या हद्दीवर दिसतात.
नारळ: ही खास कोकणची रांगोळी. नारळाचे आपल्या संस्कृतीतले महत्व सुपरीचीतच आहे. नारळाच्या झाडाला कल्पवृक्ष म्हणतात. त्याचा प्रत्येक भाग हा उपयोगी असतो. देवासमोर नारळ फोडणे म्हणजे आपला अहं मोडणे होय.

सरस्वती: विद्येची देवता म्हणून सर्वांनाच माहित असते.

लक्ष्मी: धनाची देवता म्हणून सर्वांनाच माहित असते.

कोयरी: कैरी या शब्दाचा हा अपभ्रंश किंवा कोकणातील आंब्याच्या कोयीचे हे चित्रण.

बिल्वपत्र: बेलाचे पान शंकरला वाहतात. त्याला तीन दले असतात. तसेच तीन भाग बिल्वपत्र या रांगोळीत असतात.

कासव: कासवाचे महत्व भारतीय संस्कृतीत असण्याचे करण म्हणजे विष्णूच्या दहा अवतारांपैकी कासव हा दुसरा अवतार. ते पाण्यात तसेच जमीनीवर राहू शकते. देवळातून जमीनीवर कासव कोरण्याची म्हणून प्रथा आहे.

नाभिकमळ: यात विश्वाच्या उत्पत्तीचे वर्णन दडलेले आहे. भगवान विष्णूच्या नाभीतून (बेंबीतून) ब्रम्हकमळ उगवले व त्यात ब्रम्हा विराजमान होते. त्यांनीच पुढे सृष्टीची निर्मिती केली आहे अशी पुराणात आख्यायिका आहे.

ज्ञानकमळ: कमळ चिखलात उगवते पण त्याला जसा चिखल लागलेला नसतो ते स्वच्छ असते त्याप्रमाणे माणसाचे ज्ञानही शुद्ध असावे. पुर्वग्रहदुषित नसावे अशी शिकवण आहे.

चक्रव्यूह: महाभारतातील अभिमन्यूची कथा सर्वांनाच माहित असते. या रांगोळीच्या आकारात द्रोणाचार्यानी व्यूह रचला होता. त्यात शिरायचे कसे हे त्याला माहित होते परंतु बाहेर कसे पडायचे ते माहीत नव्हते.
सर्वच रांगोळ्या नजरेला सुंदर दिसतात. त्याचे कारण म्हणजे त्यातील सममिती. काही अपवाद (सुर्य, शंख, सरस्वती व चक्रव्यूह) सोडले तर बहुतेक सर्वच रांगोळ्यात चक्रीय सममिती असते. परंतु ठिपके काढून काढलेल्या पारंपारिक रांगोळ्यांचे आणखी एक वैशिष्ट्य असे की त्या रांगोळ्याचा एक मूळ आकृती बंध असतो. तसच प्रत्येक आकृती बंधात एखादे विशिष्ट गणिती प्रमेय असते. मूळ आकृतीबंधातून मग मोठे आकृती बंध बनवता येतात. या क्रियेला गणितात इटरेशन वा पुनरावृत्ती म्हणतात. अशाप्रकारे रांगोळ्या काढतांना एकीकडे मनाला मिळणा-या आनंदाबरोबर नकळतपणे गणिताचा अभ्यासही होतो.
रोज रांगोळी काढण्याचे बरेच फायदे आहेत. कलात्मकतेबरोबरच, समान अंतरावर ठिपके काढण्यात कौशल्य असते. तसेच मनाची एकग्रता व शिस्त वाढते. रांगोळी काढण्याबरोबर ती पाहणा-यालाही एक प्रकारचा सात्विक आनंद मिळतो. शिवाय आपल्या हिंदू संस्कृतीच्या शिकवणीत त्यातून सतत आठवण रहाते व नकळत गणीती प्रमेयांचा अभ्यास होतो हा तर केवडा मोठा वाटा आहे. सध्याच्या युगांत विशेषत: पुणे-मुंबई ठिकाणी वा अमेरिकेत रोज अंगणात जरी या रांगोळ्या काढणं शक्य नसलं तरी शाळेत चित्रकलेच्या तासाला त्या शिकणं यातून बरच काही साध्य होऊ शकेल.


माधुरी बापट
१६६६ साउथ कॅटस रेन लेन
थॅचर, अँरीझोना.

"ICE" (In Case of Emergency) Campaign



We all carry our mobile phones with names & numbers stored in its memory but nobody, other than ourselves, knows which of these numbers belong to our closest family or friends.


If we were to be involved in an accident or were taken ill, the people attending us would have our mobile phone but wouldn't know who to call. Yes,there are hundreds of numbers stored but which one is the contact person in case of an emergency? Hence this "ICE" (In Case of Emergency) Campaign


The concept of "ICE" is catching on quickly. It is a method of contact during emergency situations. As cell phones are carried by the majority of the population, all you need to do is store the number of a contact person or persons who should be contacted during emergency under the name "ICE" (In Case Of Emergency).

The idea was thought up by a paramedic who found that when he went to the scenes of accidents, there were always mobile phones with patients, but they didn't know which number to call. He therefore thought that it would be a good idea if there was a nationally recognized name for this purpose. In an emergency situation, Emergency Service personnel and hospital Staff would be able to quickly contact the right person by simply dialling the number you have stored as "ICE."


For more than one contact name simply enter ICE1, ICE2 and ICE3 etc. A great idea that will make a difference!

Let's spread the concept of ICE by storing an ICE number in our** **Mobile phones today!** **


Please forward this. It won't take too many "forwards" before everybody will know about this It really could save your life, or put a loved one's mind at rest **.** **

**Remember:-


**ICE will speak for you when you are not able to** *

Dr. A. P. J. Abdul Kalam

Dr. Abdul Kalam's Letter to Every Indian


Why is the media here so negative?
Why are we in India so embarrassed to recognize our own strengths, our achievements?
We are such a great nation. We have so many amazing success stories but we refuse to acknowledge them. Why?
We are the first in milk production.
We are number one in Remote sensing satellites.
We are the second largest producer of wheat.
We are the second largest producer of rice.
Look at Dr. Sudarshan , he has transferred the tribal village into a self-sustaining, self-driving unit.. There are millions of such achievements but our media is only obsessed in the bad news and failures and disasters.
I was in Tel Aviv once and I was reading the Israeli newspaper. It was the day after a lot of attacks and bombardments and deaths had taken place. The Hamas had struck. But the front page of the newspaper had the picture of a Jewish gentleman who in five years had transformed his desert into an orchid and a granary. It was this inspiring picture that everyone woke up to. The gory details of killings, bombardments, deaths, were inside in the newspaper, buried among other news.
In India we only read about death, sickness, terrorism, crime.. Why are we so NEGATIVE? Another question: Why are we, as a nation so obsessed with foreign things? We want foreign T.Vs, we want foreign shirts. We want foreign technology.
Why this obsession with everything imported. Do we not realize that self-respect comes with self-reliance? I was in Hyderabad giving this lecture, when a 14 year old girl asked me for my autograph. I asked her what her goal in life is.. She replied: I want to live in a developed India . For her, you and I will have to build this developed India . You must proclaim. India is not an under-developed nation; it is a highly developed nation...
YOU say that our government is inefficient.
YOU say that our laws are too old.
YOU say that the municipality does not pick up the garbage.
YOU say that the phones don't work, the railways are a joke. The airline is the worst in the world, mails never reach their destination.
YOU say that our country has been fed to the dogs and is the absolute pits.
YOU say, say and say.. What do YOU do about it?
Take a person on his way to Singapore . Give him a name - 'YOURS'. Give him a face - 'YOURS'. YOU walk out of the airport and you are at your International best. In Singapore you don't throw cigarette butts on the roads or eat in the stores. YOU are as proud of their Underground links as they are.. You pay $5 (approx. Rs.. 60) to drive through Orchard Road (equivalent of Mahim Causeway or Pedder Road) between 5 PM and 8 PM. YOU come back to the parking lot to punch your parking ticket if you have over stayed in a restaurant or a shopping mall irrespective of your status identity… In Singapore you don't say anything, DO YOU? YOU wouldn't dare to eat in public during Ramadan, in Dubai .. YOU would not dare to go out without your head covered in Jeddah.
YOU would not dare to buy an employee of the telephone exchange in London at 10 pounds (Rs..650) a month to, 'see to it that my STD and ISD calls are billed to someone else.'YOU would not dare to speed beyond 55 mph (88 km/h) in Washington and then tell the traffic cop, 'Jaanta hai main kaun hoon (Do you know who I am?). I am so and so's son. Take your two bucks and get lost.' YOU wouldn't chuck an empty coconut shell anywhere other than the garbage pail on the beaches in Australia and New Zealand ..
Why don't YOU spit Paan on the streets of Tokyo ? Why don't YOU use examination jockeys or buy fake certificates in Boston ??? We are still talking of the same YOU. YOU who can respect and conform to a foreign system in other countries but cannot in your own. You who will throw papers and cigarettes on the road the moment you touch Indian ground. If you can be an involved and appreciative citizen in an alien country, why cannot you be the same here in India ?
In America every dog owner has to clean up after his pet has done the job. Same in Japan .. Will the Indian citizen do that here?' He's right. We go to the polls to choose a government and after that forfeit all responsibility.





We sit back wanting to be pampered and expect the government to do everything for us whilst our contribution is totally negative. We expect the government to clean up but we are not going to stop chucking garbage all over the place nor are we going to stop to pick a up a stray piece of paper and throw it in the bin. We expect the railways to provide clean bathrooms but we are not going to learn the proper use of bathrooms.
We want Indian Airlines and Air India to provide the best of food and toiletries but we are not going to stop pilfering at the least opportunity. This applies even to the staff who is known not to pass on the service to the public.
When it comes to burning social issues like those related to women, dowry, girl child! and others, we make loud drawing room protestations and continue to do the reverse at home. Our excuse? 'It's the whole system which has to change, how will it matter if I alone forego my sons' rights to a dowry.' So who's going to change the system?
What does a system consist of? Very conveniently for us it consists of our neighbours, other households, other cities, other communities and the government. But definitely not me and YOU. When it comes to us actually making a positive contribution to the system we lock ourselves along with our families into a safe cocoon and look into the distance at countries far away and wait for a Mr.Clean to come along & work miracles for us with a majestic sweep of his hand or we leave the country and run away.
Like lazy cowards hounded by our fears we run to America to bask in their glory and praise their system. When New York becomes insecure we run to England . When England experiences unemployment, we take the next flight out to the Gulf. When the Gulf is war struck, we demand to be rescued and brought home by the Indian government. Everybody is out to abuse and rape the country. Nobody thinks of feeding the system. Our conscience is mortgaged to money.
Dear Indians, The article is highly thought inductive, calls for a great deal of introspection and pricks one's conscience too….. I am echoing J. F. Kennedy's words to his fellow Americans to relate to Indians…..

'ASK WHAT WE CAN DO FOR INDIA AND DO WHAT HAS TO BE DONE TO MAKE INDIA WHAT AMERICA AND OTHER WESTERN COUNTRIES ARE TODAY'


Lets do what India needs from us.
Forward this mail to each Indian for a change instead of sending Jokes or junk mails.

Thank you,
Dr. A. P. J. Abdul Kalam

I humbly request you to forward this to every Indian……

http://www.youtube.com/watch?v=laGZaS4sdeU